सेराज अनवर

GAYA:भगवान विष्णु, गौतम बुद्ध और पीरमंसूर की धरती गया को हिन्दू-मुस्लिम एकता का शहर यूं ही नहीं कहा जाता.यहां दोनों समुदाय दुर्गा पूजा की महिमा बरक़रार रखने के लिए मिलजुल कर प्रयत्न करते हैं.सराय रोड स्थित जामा मस्जिद और दुःख हरणी मंदिर की दीवारें एक दूसरे से सटी हैं.वैसे ही जैसे काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर.वहां का मामला अदालत में है.यहां आपसी प्रेम,सामाजिक सद्भाव,एकता की मिसाल है.

यह बेजोड़ एकता विजयदश्मी के दिन देखने को मिलता है.जब दुःखहरणी मन्दिर के पुजारी और जामा मस्जिद कमेटी के सदस्य मूर्तियां गुज़ारने के लिए मस्जिद की सीढ़ियों पर विराजमान हो जाते हैं और तब तक मौजूद रहते हैं जब तक हंसी-ख़ुशी यह कार्यक्रम सम्पन्न नहीं हो जाता.मंगलवार की देर रात्रि इस मार्ग से मूर्ति विसर्जन कार्य सम्पन्न हुआ.इस मौक़े पर सुरक्षा-व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए स्वयं डीएम त्याग राजन,एसपी आशीष भारती मौजूद रहे.साथ ही महापौर गणेश पासवान,पूर्व डिप्टी मेयर और वार्ड 26 के काउंसिलर मोहन श्रीवास्तव,मौलाना उमर नुरानी,मोति करिमी,जदयू नेता शाहजी क़मर उर्फ भोलू,जितेन्द्र कुमार आदि भी मौजूद थे.विजयदशमी यहां उल्लास के साथ मनाया गया..इस बार भी अमन-चैन के साथ दशहरा सम्पन्न हुआ.

दुर्गा विसर्जन जुलूस में शामिल भक्तजन

बिहार में पर्व-त्योहारों में जहां थोड़ा-बहुत तनाव रहता है.गया साम्प्रदायिक सौहार्द का मिसाल पेश करता है.इस इलाके में दोनों समुदाय के लोग एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहते हैं.विगत वर्ष जामा मस्जिद कमेटी ने निःशुल्क बीपीएससी कोचिंग की शुरुआत की तो दुःख हरणी मन्दिर के पुजारी को भी आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया गया था.

450 वर्ष पुरानी प्रसिद्ध दुःखहरणी मंदिर और 1890-98 में स्थापित मशहूर जामा मस्जिद का दोस्ताना भी उतना ही प्राचीन है.कहते हैं कि इस दोस्ती की नींव को कमजोर करने के लिए अंग्रेजों ने एक चाल चली.मन्दिर और मस्जिद को चीरता हुआ सड़क मार्ग से दुर्गा की मूर्ति ले जाने की इजाज़त दे दी ताकि हिन्दू और मुसलमान की एकता टूट जाये.

एसएसपी आशीष भारती एक्टिव मोड में साथ में जितेन्द्र कुमार.मौलाना उमर नुरानी,मोहन श्रीवास्तव

यह बात 1936 की है

यह बात 1936 की है.मूर्ति विसर्जन जुलूस गुज़रने के दौरान हल्की सी झड़प हुई लेकिन इसके बाद गया में कभी दंगा नहीं हुआ.पुराने लोग याद करते हैं कि चालीस के दशक के भयानक बिहार दंगों के दौरान और अयोध्या के बाद सांप्रदायिक उन्माद के दौरान भी गया वस्तुतः सांप्रदायिक शांति और सद्भाव का एक द्वीप बना रहा.

आज भी शहर की पांच बड़ी मूर्ति इसी रास्ते से गुजर रही हैं.,आपसी मेल मुहब्बत के साथ.पहले सात मूर्तियां इस मार्ग से गुज़रती थी.जिसमें राय बागेश्वरी और मुरारपुर की मूर्ति अब नहीं गुज़रती.राय बागेश्वरी ने अपनी ज़िंदगी में ही तनाव कम करने के लिए जामा मस्जिद से मूर्ति गुज़ारना बंद कर दिया था.कम्युनिस्ट नेता मसूद मंजर बताते हैं कि बाद में उन्होंने मूर्ति बैठाना ही छोड़ दिया.मुरारपुर की जुलूस भी अब इधर से नहीं जाता.

जदयू नेता शाहजी क़मर,आमिर सुहैल आदि

सबसे पहले इस रास्ते से मुरारपुर निवासी मैना पंडित ने मूर्ति जुलूस निकाला था.अंग्रेजों ने भी उसका साथ दिया था.सामाजिक कार्यकर्ता लालजी प्रसाद बताते हैं कि इस वक्त पांच मूर्ति विसर्जन के लिए जाता है जिसमें गोल्पत्थर,नई गोदाम,झीलगंज,तूतबाड़ी और दुःख हरणी फाटक की मूर्तियां शामिल हैं.

शहर में पहले दिन यही पांच मूर्तियों का विसर्जन होता है,दूसरे दिन से शेष मूर्तियों का विसर्जन का सिलसिला शुरू होता है.बताते हैं कि जामा मस्जिद और दुःखहरणी मंदिर के मार्ग से पहले गांधी मैदान में लंका दहन के समय यह जुलूस पास होता था.यह वक्त मगरिब और ईशा की नमाज़ का होता था.

डीएम,एसएसपी के साथ मेयर गणेश पासवान,पूर्व डिप्टी मेयर मोहन श्रीवास्तव.मोति करिमी,मौलाना उमर नुरानी

1981 में किया गया समय परिवर्तन

नमाज़ की वजह से आ रही दिक़्क़तों को देखते हुए 1981 में तत्कालीन कोतवाली थाना प्रभारी पीपी शर्मा ने समय में परिवर्तन कर ईशा नमाज़ के बाद 9 बजे से मूर्ति विसर्जन जुलूस जाने की इजाज़त दी.माहौल बहुत ख़ुशगवार रहता है.

जहां हिन्दू भाईयों की ओर से मुसलमानों को प्रसाद वितरण किया जाता है वहीं मुसलमानों की तरफ़ से पानी और चाय की व्यवस्था की जाती है.हिन्दू-मुसलमानों पर आधारित संस्था एकता मंच पिछले तीन दशक से पर्व-त्योहार में आपसी भाईचारा को बरकरार रखने का काम कर रहा है.

एकता मंच के संयोजक मसूद मंजर,लालजी प्रसादआदि शांतिपूर्ण और उल्लास के साथ मूर्ति विसर्जन जुलूस को सम्पन्न कराने में महती भूमिका निभाते रहे हैं.पुलिस-प्रशासन से अधिक सामाजिक कार्यकर्ताओं,दुःखहरणी मन्दिर,जामा मस्जिद कमेटी अपनी जवाबदेही निभाती है.एकता की डोर इनसे ही बंधी हुई है.

जामा मस्जिद के बारे में जानिये

गया शहर की जामा मस्जिद बिहार की बड़ी और खूबसूरत मस्जिदों में से एक है.इस आलीशान मस्जिद का निर्माण मीर अबू सालेह ने 1890-98 के दौरान करवाया था. मीर अबु सालेह कड़ाह के नवाब थे.कड़ाह अब नालंदा जिला में है .

मीर अबु सालेह ने जब इस मस्जिद का निर्माण का काम शुरु किया तो आस पास के जमींदारों ने भी मस्जिद की तामीर के लिए पैसे देना चाहा तो उन्होंने (नवाब – कड़ाह) ये कह कर साफ़ इंकार कर दिया के इस मस्जिद की तामीर मैं अपने निजी पैसों से करवाएंगे.

जिससे लोगों ने उनका विरोध किया तब जा कर उन्होंने कुछ मामूली रक़म लोगों से ली और बाक़ी का सारा ख़र्च ख़ुद ही अदा किया.उस समय में उन्होंने इस मस्जिद को एक लाख 80 हज़ार की लागत से बनवाया था; जो एक बड़ी रकम थी.जामा मस्जिद अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के लिए बीपीएससी की तैयारी के लिए निःशुल्क कोचिंग चलाई रही है.

इस कोचिंग सेंटर की स्थापना पिछले वर्ष की गयी है जो बिहार राज्य सुन्नी वक्फ बोर्ड से मान्यता प्राप्त है. कोचिंग सेंटर में फिलहाल 44 अभ्यर्थियों का नामांकन है जो बीपीएससी 69 वीं बैच परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं.

यह कोचिंग पूरे बिहार के अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए वरदान साबित होगा, जो पैसे के अभाव में कोचिंग के लिए पटना-दिल्ली नहीं जा सकते हैं. पटना के हज भवन में इस तरह की कोचिंग पहले से संचालित है लेकिन गया का जामा मस्जिद बिहार की पहली मस्जिद है जहां इस तरह की पहल की गई है.

पिछले वर्ष 67वीं एवं 68 वीं बीपीएससी परीक्षा में इस कोचिंग के कई छात्र-छात्राएं शामिल हुई थी, लेकिन कुछ अंक से चूक गए थे. हालांकि इस वर्ष 69 वीं बीपीएससी परीक्षा को लेकर तैयारी जोर शोर से चल रही है.

450 पुराना है दुःखहरणी मंदिर का इतिहास

मां दुखहरणी मंदिर में तीन कलश की स्थापना की जाती है. यहां माता त्रिपुर दुर्गा आदिशक्ति महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में विराजमान हैं. मान्यता है कि दुःखी और पीड़ित श्रद्धालु इस मंदिर में आकर मां के दर्शन कर पूजा-अर्चना करते हैं तो उनके दुःख का हरण हो जाता है.

मां दुःखहरणी मंदिर की प्रतिमा लगभग 450 साल पुरानी बताई जाती है. मंदिर के पास एक पुरानी गेट बना हुआ है. ऐसा कहा जाता है कि यह गेट गया शहर में प्रवेश करने के लिए बनाया गया था.दुःख हरणी मंदिर को आराधना,साधना तथा उपासना की शक्ति स्थल माना जाता है.

गया शहर स्थित मां दुःख हरणी मंदिर काफी प्रसिद्ध है. यहां हर दिन श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है. सोमवार को माता के दरबार में हजारों की संख्या में श्रद्धालु पूजा-पाठ करने आते हैं. मां के आशीर्वाद से भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है.

एक समय था जब इस मंदिर में बलि देने की प्रथा थी, लेकिन वर्ष 1940 के बाद इस प्रथा को बंद कर दिया गया. अब इस मंदिर में यदि भक्त नारियल चढ़ाते हैं तो उसे भी मंदिर के नीचे ही फोड़ना पड़ता है. मंदिर में विराजमान मां दुःखहरणी का दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं को पहले मंजिल पर जाना पड़ता है. इस मंदिर में विराजमान मां दुखहरणी वैष्णव रूप में हैं.

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